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भारतीय कृषि :
भारतीय कृषि की अपनी एक विशेषता है ।भारत में कुछ फसलें ऐसी होती हैं जिनके लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है तो कुछ फसलें ऐसी होती हैं जिनमें पानी की आवश्यकता एकदम नहीं होती।
इसी प्रकार भारतवर्ष में अलग-अलग भूमियों का प्रकार भी है ।कहीं रेतीली मृदा तो कहीं पथरीली मृदा, कहीं जलोढ़ तो कहीं दोमट, इन सारी मृदाओं में अलग-अलग प्रकार की फसलें तैयार होती हैं जिसका हमारे जीवन में दैनिक से लेकर व्यवसायिक प्रयोग तक संभव हो पाता है।
तारामीरा : क्या होता है
इसी क्रम में आज हम एक ऐसी फसल पर विस्तृत रूप से चर्चा करते हैं जिसे रवीकीफसल में गिनती होती है ।तारामीरा के नाम से जाने वाले फसल अक्टूबर-नवंबरमेंबोयाजाताहै यानी ठीक बरसात के बाद तथा मार्च-अप्रैल तक इस फसल को काट लिया जाता है । बुवाई के बाद तारामीरा के फसल में जल की आवश्यकता नहीं होती है जिस कारण से किसानों का होने वाला खर्च पूरी तरह से बच जाता है।
इसलिए इस फसल को ठीक बरसात के बाद अक्टूबर या नवंबर में बोते हैं ।इस फसल की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है की यह कम लागत में अधिक उत्पादन देती है तथा इसके रखरखाव पर कोई खर्च नहीं आता है । गाय ,बकरी,नील गाय जैसे जानवर भी इस फसल तारामीरा को खा नहीं सकते इसलिए जानवरों से भी कोई भय नहीं रहता ।इसके फसलों की लंबाई 2 से 3 फीट तक की होती है। यह सरसों के प्रजाति जैसी होती है लेकिन इसके दाने या फलियां लाल होते हैं ।
तारामीरा खेती वाले छेत्र :
राजस्थान के गंगागढ़,हनुमानगढ़ और नागौर जिले में क्रमश पहला, दूसरा और तीसरे स्थान पर इसका उत्पादन होता है।मुख्य रूप से यह फसल राजस्थान की ही है जहां की जमीन बंजर होती है ।धीरे धीरे पंजाब के किसानों ने भी इस फसल को फसल चक्र के रूप में उपयोग में करना शुरू किया है जिससे जमीन की मृदा में उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है।
तारामीरा व्यवसायिक प्रयोग :
तारामीरा की फसल का उपयोग व्यवसायिक प्रयोगों में ज्यादा हो रहा है इसके फसल का इस्तेमाल जड़ी–बूटी के रूप में ज्यादा होता है इसके तेल से कमर दर्द और समय से पहले बालों का झड़ना तथा डैंड्रफ जैसी समस्याओं के लिए राम बाण सिद्ध होता है I
तारामीरा की पत्तों को भूनकर खाने से हमारे शरीर में विटामिन ए (Vitamin A) और पोटेशियम(Pottasium) की भरपूर मात्रा मिलती है जिससे हमारे आंखों में रोशनी एवं हड्डियों में मजबूती मिलती है।
तारामीरा के तेल को खाद के रूप में प्रयोग करने से मुंह कैंसर कैंसर तथा स्किन कैंसर के प्रभाव को कम करता है तथा इस में पाई जाने वाली अल्फा लिपोस एसिड (Alpha pills Acid ) से शुगर(Sugar) के दुष्प्रभाव को कम किया जाता है क्योंकि इससे इंसुलिन बनती है।
इस फसल की लागत में प्रति एकड़ ₹4000 का खर्च आता है। जब यह फसल तैयार हो जाती है अर्थात पक जाती है तब इसका मूल्य बाजार में ₹7000 से ₹10000 प्रति क्विंटल तक हो जाता है तथा 1 एकड़ में प्रायर 10 से 12 क्विंटल तक उत्पादन हो जाता है 1 एकड़ पैदावार के लिए इसमें 5 किलो बीज की आवश्यकता होती है।
तारामीरा की खेती के स्कोप (Scope) :
इस फसल की व्यवसायिक गुण तो बहुत हैं लेकिन इनका व्यवसायिक लाभ भारतीय कंपनियां ले नहीं पा रही हैं। आज के समय में बढ़ते प्रदूषण के कारण लोग चर्म रोग से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। अगर तारामीरा के फसल से बड़े स्तर पर इसका प्रयोग किया जाए तो इसका व्यवसायिक वैल्यू और बढ़ जाएगी जिस कारण से देश के अन्य हिस्सों में भी इसका उत्पादन किसान करने लगेंगे।
राजस्थान छोड़कर भारत के अन्य कुछ हिस्सों जैसे मध्य प्रदेश ,उत्तर प्रदेश ,बिहार झारखंड,उड़ीसा इत्यादि जगहों पर भी इसकी खेती हो सकती है। सरकार को भी चाहिए की भारत की परंपरागत फसलों पर ध्यान दें तथा इस पर शोधकार्यों (Research work) के द्वारा संभावित विकल्पों पर अधिक ध्यान दें।
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तारामीरा खेती के लाभ :
- यह किसानों के लिए आय बढ़ाएगा।
- यह भारत के लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा को स्थिर करने में मदद करेगा।
- यह किसानों के लिए प्रति हेक्टर उत्पादन बढ़ाएगा।
- यह नौकरी के अवसर को बढ़ाने में मदद करेगा।
- यह अधिक किसानों को तारामिरा में खेती के लिए प्रेरित करेगा।
- यह देश में पानी की समस्या को हल करने में मदद कर सकता है और भूजल स्तर भी बढ़ाएगा।
- यह सरकार को विभिन्न योजनाओं के साथ आने के लिए प्रोत्साहित करेगा।