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राम प्रयाग ही क्यों आये!

virendra pathak
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राम को भगवान राम प्रयाग ने बनाया

प्रयाग से प्रयागराज तक-वीरेन्द्र पाठक


पुस्तक से साभार
राम प्रयाग ही क्यों आये!


श्रुति के अलावा पहली बार तथ्य रूप में रामकथा बाल्मीक रामायण में मिलती है। रामकथा का आधुनिक मूल स्त्रोत यही है। अन्य रामकथाएं अलग अलग तरीके से क्षेत्रीय आधार व भाषा के अनुरूप लिखी गयी है। यह बड़ा विचारणीय प्रश्न है कि आखिर वनवास का आदेश पाकर राम क्यों प्रयाग आये। जब आज भी अयोध्या के पास हिमालय की तलहटी से लगा घनघोर जंगल है तो आज से हजारों साल पहले तो अयोध्या से सटा जंगल ही जंगल था। धार्मिक लोग अनेक बात कहते हैं किन्तु यह बात से बात को निकालना है,तर्क नही न ही तथ्य।

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चलिए थोड़ा इसी से सम्बन्धित बात कर लेते है। जैसा मेरा चिन्तन और निष्कर्ष है, कि प्रयाग वैदिक युग से सभ्यता के विकास का केन्द्र था। यहां पर जीवन जीने की कला विकसित होती थी। कयी गुरूकुल थे जहां पर अलग अलग ज्ञानी लोग चिन्तन मनन व निष्कर्ष निकाला करते थे। इसी पर पुनः विद्वानों के सामने चर्चा होती थी। निष्कर्षों को शब्द रूप दिया जाता था जिसे मंत्र कहते थे। जब ज्ञानी मण्डल इन्ही मंत्रों का प्रमाणीकरण कर देते थे उस अन्वेषणकर्ता को मंत्र दृष्टा रिषी कहते थे।


यह मै पहले लिख आया हूॅ। प्रयाग की भूमि को देखेगें तो यह दो तरफ से गंगा और यमुना से घिर कर त्रिभुज आकार लेती है। मै पहले जिक्र कर आया हूॅ कि राम का आना प्रयाग ही क्यों हुआ और श्रृगंवेरपुर से गंगा को पार करना क्यों पड़ा ?

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ऐसे कयी तथ्य है जिन्हे आपको जानना और समझना होगा तभी मेरे विचार को आप समझ सकते है। पहला आज जब बाढ़ का स्वरूप है ,ऐसे में गंगा और यमुना का रौद्र रूप देखकर शायद ही कोयी इसे पार करने का साहस करे। आप मेरी इस बात से सहमत होगें। ऐसे में जरा इस बात की कल्पना कीजिए जब गंगा पर बांधों का निर्माण नही हुआ था तब कयी हजार साल पहले गंगा कितनी विकराल और रौद्र रूप धारण करती होगीं ! आप सिर्फ कल्पना कर सकते है। ऐसे समय गंगा और युमना को पार करना क्या आसान होता होगा ?

शायद नही। और जब गंगा में यमुना मिल जाएं तो गंगा को पार करना क्या आसान होगा? जवाब होगा पहले से और कठिन हो जायेगा। प्रयाग के आगे गंगा और यमुना मिलकर चलती है और गंगा में यमुना का पानी भी मिल जाता कर विशाल जल राशि बन जाता है। इसी के बाद प्रयाग की अवधारण खत्म हो जाती है।


यहां एक तथ्य हमारे पूर्वजों ने जान लिया था लेकिन हममें से अधिकांश लोग नही जानते कि हिमालय से नीचे आने के बाद सिर्फ एक स्थान है जहां गंगा सबसे ज्यादा स्थिर और छिछली होकर बहती है। वह स्थान है “श्रृगंवेरपुर”।


जी हां श्रृगंवेरपुर वह स्थान है जहां पर गंगा सबसे ज्यादा छिछली हो जाती है। यह बात हमारे पूर्वजों को मालूम थी इसीलिए नाव के द्वारा वह यहीं से गंगा को पार किया करते थे।

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चलिए हमरा मूल विषय था कि राम प्रयाग ही क्यों आये?

उक्त बातें सिर्फ इसलिए लिखा जिससे आप उस समय की भौगोलिक परिस्थितियों को समझ सकें। सामान्य इतिहास के लोग अच्छी तरह जानते हैं कि अवध राज्य की सीमा सई नदी तक थी। जो विस्तारित रूप में गंगा तक आती थी। अगर आज जैसी परिस्थितियां होती तो राम सीधे फाफामउ तक आते और गंगा पार कर प्रयाग आ जाते। इस रास्ते प्रयाग स्थित भरद्वाज मुनि का आश्रम पास था। लेकिन आज भी गंगा के तट या पेटे को देखें तो आपको अंदाज हो जायेगा कि इस विशाल जलराशि को फाफामउ से पार करना कितन कठिन था।


रामकथा का पहला दस्तावेज है “बाल्मीकि रामायण” है।

इसी के अधार पर बाद में मुगल काल में तुलसी दास ने राम चरित मानस का सृजन किया। यह सनातन धर्म है, जिसमें व्यक्ति नही बल्कि कार्यों की पूजा की जाती है। बाल्मीकि जी ने रामकथा लिखी लेकिन तुलसी जी ने रामचरित मानस लिखा। बाल्मीकि रामायण में राम के प्रयाग आने की बात मात्र इतनी लिखी है, कि राम पत्नी सीता और भाई के साथ श्रृगंवेरपुर से गंगा पार करते हैं। मजे की बात है कि यहां पर राम नाव से गंगा को पार करते है। माता सीता जब नाव में सवार होती हैं तो गंगा का स्मरण कर उनसे मन्नत करती है कि उनके पति और देवर को सकुशल पार करा दें। अब जरा विशाल जलराशि में सामान्य नाव में आप गंगा के पार होने का दृश्य कल्पना में महसूस करें।

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इसी बाल्मीकि रामायण में फिर यह उल्लेख है कि सकुशल गंगा पार करने के पश्चात राम कहते है कि प्रयाग वन है और जो धुवां उठ रहा है वह महर्षि भरद्वाज जी का आश्रम है। हम उसके करीब आ गये है। हिसंक पशुओं से बच कर वह आश्रम पहुॅचतें है जो गंगा के तट पर है। दण्डवत प्रणाम करतें है। वार्ता करते हैं और आगे का मार्ग पूछतें हैं। महर्षि विश्राम के बाद दूसरे दिन प्रातः उन्हे दक्षिण दिशा की ओर यमुना पार कर आगे जाने की सलाह देते है। दूसरे दिन राम परिजन सहित दक्षिण दिशा में यमुना के किनारे जाते है और यहां पर बेड़ा बनाते है।

यहां पर वह नाव से उसपार नही जाते। क्योंकि यहां से आवागमन इस पार से उस पार नही होता, अतः नाव भी नही है। पेड़ों के सीधे तने को काट कर और जोड़ कर बेड़ा बनाते है और यमुना के पार जाते है। यहां पर भी भयभीत सीता यमुना मां से पति और देवर को सुरक्षित करने की प्रर्थना करती है।


महर्षि भरद्वाज से वार्ता करने का उल्लेख है और उनके द्वारा दक्षिण जाने की सलाह का उल्लेख मिलता है। भरद्वाज जी यहां पर श्याम वट का उल्लेख करते है कि उनका आर्शीवाद जरूर ले लेना।


अब सवाल उठता है कि श्रृगंवेरपुर से पार कर राम चरवा आते हैं और फिर मार्गदर्शन के लिए महर्षि भरद्वाज के आश्रम प्रयाग वन पार कर आते है। अगर राम की यात्रा पूर्व निर्धारित थी तो वह सीधे महेवा होते हुए चित्रकूट जा सकते थे। क्योंकि उस काल में भूगोल का ज्ञान लोगों को था। तभी वह अयोध्या से श्रृगंवेर पुर आये थे। चूकिं राम की यात्रा एक सामाजिक राजनीतिक यात्रा थी इसलिए प्रसंग उसी तरह जोड़े और रचे गये। लेकिन इसकी सबसे महत्वपूर्ण कड़ी प्रयाग और भरद्वाज जी है। क्योकि राम की यात्रा में कयी सहायक और मार्गदशन की जरूरत थी। वह भरद्वाज जी ही दे सकते थे। ऐसा इसलिए क्योकि पूरे विश्व से भरद्वाज जी व प्रयाग मे स्थापित गुरूकुल में पढ़ने लोग आते थे।

दक्षिण में भी भरद्वाज जी के शिष्य थे जो राम की सहायता कर सकते थे। राम का दक्षिण जाना विभिन्न घटनाओं का उनके साथ घटना और फिर विजय के बाद प्रयाग लौट कर भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाने की बाध्यता स्पष्ट करती है कि प्रयाग और भरद्वाज जी का उस समय कितना महत्वपूर्ण स्थान था। नही तो त्रिलोक विजयी रावण को विजय करने के बाद राम सीधे अयोध्या चले जाते, लेकिन ऐसा नही हुआ। भरद्वाज जी के शिष्यों ने जो मदद की और मार्गदर्शन के बाद घटित घटनाओं के समाज में सकारात्मक स्वीकृतिकरण के लिए उनको यहां आना पड़।


मेरा मानना है कि राम की यह यात्रा सामाजिक समरसता और विस्तार की एक कथा है।

जिसमें नये नये मोड़ आये जिसे बाद में श्रुतियों ने नया आयाम दिया। इस कड़ी के मुख्य और केन्द्र में प्रयाग और भरद्वाज मुनि है। चूकिं ज्ञान का विस्तार और सभ्यता के विकास का मुख्य केन्द्र प्रयाग ही था इसलिए राम को भरद्वाज जी के आश्रम में आगे की रणनीति और सहायता के लिए आना ही था। आप राम के चरित्र को देखें वह आगे के 14 वर्ष समाज की निचली श्रेणी में रहने वाले लोगों से मिलते हैं उनका उद्धार करतें हैं शबरी से लेकर बालि तक। रामकथा में उनको नायक ही नही मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में स्थापित किया गया है। वह अपना पूरा युद्ध जंगल में रह रहे लोगों के साथ लड़ते और जीतते हैं। कपि के रूप में हनुमान हो या जामवन्त। आप दक्षिण की ओर जाएं आप को जनजाति की तरह लोग मिलेगें।

कुछ लोग कयी बार कहते हैं कि दक्षिण में कर्नाटक आदि में बड़े सुन्दर लोग रहते हैं जैसे ऐश्वर्या राय आदि। उनकी जानकारी के लिए स्पष्ट करता हॅू यह भारत के मूल लोग नही हैं बल्कि काफी पहले भारत आये पुर्तगाली या पारसी है। बाद में वर्णशंकर से गोरा रूप मिला ,नही तो यहां के मूल निवासी काले ही हैं। एक बात और जिक्र करना समीचीन रहेगा कि वैदिक काल/या बाद में दण्ड स्वरूप भी अपराधियों को दक्षिण भेजा जाता था। जो पहले विकसित नही था। ऐसा इसलिए किया जाता था जिससे वह व्यक्ति समाज से कट जाय और उसकी बुरायी दूसरे को न लगे। इसके कयी प्रमाण है।


रावण और भरद्वाज जी में सम्पर्क था। विमान का इन दोनों के पास होना यह सिद्ध करता है कि रावण उस तकनीक से परिचित था जो भरद्वाज जी के पास थी। यह सिद्ध हो चुका है कि सभ्यता में पहली बार विमान की तकनीकी जानकारी भरद्वाज जी को ही थी।


भरद्वाज जी कितने महत्वपूर्ण है इस राम कथा में कि राम आगे की यात्रा उनसे पूछं कर करतें हैं और रावण वध के बाद प्रयाग ही आतें हैं। सत्य तो यह है कि प्रयाग ने जिसका प्रमाणीकरण किया वह श्रेष्ठ हुआ नही नराधम। राम का यहां आना भी उनकी उस समय की जरूरत थी। क्योकि रावण ब्राम्हण था, विद्वान था और रिषि कुल से जुड़ा था ऐसे में रावण के मारने का न्यायोचित कारण राम अगर न स्थापित कर पाते तो वह “राम ” से “भगवान राम” न बन पाते या राम से मर्यादा पुरूषोत्तम नही बन पाते। प्रयाग ही वह क्षेत्र था जहां के विद्वानों ने अगर मान्यता दे दी, तो राम पर से ब्रम्हहत्या का अर्थात पतित होने का पाप धुल जाता, और ऐसा हुआ भी।


भरद्वाज जी ने उनको ब्रम्हहत्या अर्थात एक विद्वान की हत्या के पाप का प्रयाश्चित का मार्ग सुझाया। कथाओं ने निश्चित ही अपना मूल स्वरूप नही रखा होगा। पाप का प्रयाश्चित धार्मिक रूप से कोटि शिवलिंग की कथा आज भी सुनी सुनायी जाती है।

कयी लोग इस बात पर आश्चर्य करते है कि राम का प्रयाग आना वनवास का एक कारण है न कि समाजिक यात्रा की आगे की योजना। इसे परखते हैं ।


प्रयाग तीर्थों का राजा है, पर कोयी सवाल नही उठाता। आखिर तीर्थों का राजा ही क्यों हुआ,? प्रश्न जब आप करें और उसका उत्तर खोंजे तो निश्चित ही आपको समझ आता है कि वैदिक काल में प्रयाग की क्या महत्ता रही होगी। जैसा मै पहले लिख आया हूॅ कि प्रयाग मानव सभ्यता के लिए क्यों खास था उसी के तहत वैदिक काल से पुराण के काल तक मिथक रूप बदलते रहे।

लेकिन राम के चरित्र पर सही की मुहर लगाने वाला “प्रयाग का गुरू समाज” ही था । जिसके कारण राम का चरित्र आदर्श स्वीकार किया गया और उसका महिमा मण्डन भी राम कथा के रूप में किया जाने लगा। बाल्मीकि रामायण के बाद तुलसी दास जी ने राम चरित मानस की रचना प्रयाग/ बनारस में की। राम के उच्च चरित्र को आदर्श के रूप में स्थापित करने के लिए तुलसी दास ने रामलीलीओं का मंचन शुरू किया जो आज परम्परा के रूप में सबसे ज्यादा प्रयाग और वाराणसी में होती है।वैदिक काल के बाद का स्वर्णिम इतिहास पर अंधेरा है नही तो सारे तथ्य हमें स्पष्ट दिखते।

Shri Ram Janmbhoomi Teerth Kshetra


जब मै कहता हूॅ कि राजघराने के एक राजकुमार “राम” को “भगवान राम” बनाने में प्रयाग का ही स्थान है तो लोग चौंक उठते है। रामकथा सबसे पहले याज्ञवल्य रिषि ने भरद्वाज को सुनायी। बाल्मीकि जी जो प्रयाग के आस-पास ही रहे उन्होने बाल्मीकि रामायण लिखी। लेकिन जिन रिषी ने राम को आर्शीवाद दिया और जिन्होने राम को प्रयाश्चित का तरीका बताया क्या वह याज्ञवल्य जी से कथा सुनकर रामकथा गायेगा ?

इसको थोड़ा अलग और मेरे तरीके से सोचें ,कि एक विद्वान की हत्या के बाद याज्ञवल्य जी आते है और रिषी भरद्वाज जी को हत्या का स्पष्टीकरण देकर भरद्वाज जी को सन्तुष्ट करते हैं कि सभ्यता समाज के लिए रावण बधाई ब्रम्ह हत्या नही है। यह थ्योरी ज्यादा सटीक व अच्छी लगती है।
ब्राम्हण बध को ब्राम्हणवाद से कुछ लोग जोड़ सकते हैं। मै यहां स्पष्ट कर दूं ,मेरा मानना है कि ब्राम्हण किसी जाति से न जोड़ कर देखें । ब्रम्हा से उत्पत्ति है ब्राम्हण की। इसी तरह राम के वशंजों की उत्पत्ति भी ब्रम्हा से मनु और इच्क्षाकु से है। मै ब्राम्हण को प्रकृति पूजक एवं एक संस्कृतिक वर्ण मानता हूॅ। मेरा स्पष्ट मत है कि राम को भगवान राम प्रयाग ने बनाया। अयोध्या में तो राम का जन्म हुआ लेकिन राम को भगवान राम प्रयाग के रिषियों ने सभ्यता के विकास और सही दिशा देने के लिए बनाया।


(बहुत सारे ग्रन्थों व चिन्तन मनन के बाद मै यह सोचता हूॅ। लेकिन कोयी जरूरी नही कि आप भी मेरी तरह सोचें। मेरी पूरी आस्था भगवान राम और उनके चरित्र में हैं।)

लेखन –
श्री वीरेंदर पाठक

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