नौकरशाही और समाज के बीच संबंध।
इसमें उतार-चढ़ाव और एक दूसरे का प्रभाव।
आजादी के पहले नौकरशाही में समाज के लोगों का प्रतिनिधित्व बहुत कम था अर्थात केवल उन पदों तक सीमित था जो निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल नहीं थे।
बहुत छोटे पदों तक ही भारतीयों की नियुक्ति होती थी।
ऐसा इसलिए कि अंग्रेजी शासन व्यवस्था को भारतीयों के ऊपर विश्वास नहीं था कि वे अंग्रेजी शासन व्यवस्था जो भारत में शोषण का पर्याय थी उसे अपना समर्थन देंगे।
इस के दो अर्थ हो सकते हैं।
एक तो भारतीयों में अपने देश के प्रति लगाव और
दूसरा अंग्रेजों का उनके ऊपर संदेह करना ।
आजादी के पहले आम जनमानस भी अंग्रेजों को संदेह की नजर से देखता था और अंग्रेजी शासन को भारत से भगाने की प्रत्येक मुहिम में अपनी क्षमता अनुसार भागीदारी करता था।
गांधी जी के आंदोलन ‘सविनय अवज्ञा’
असहयोग आंदोलन में भारी संख्या में ऐसे लोगों ने भाग लिया था जो सामान्यतः किसान और मजदूर थे ।
आजादी के बाद नौकरशाही का तंत्र वही रहा लेकिन इसमें भर्ती शुरू हुई भारतीयों की अर्थात भारतीय समाज से लोग नौकरशाही में जाने लगे।
यह एक बड़ा परिवर्तन था जो भारत के लिए युगांतर कारी साबित हो सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
नौकरशाही ने भारत को आज भी अंग्रेजी तंत्र के हिसाब से देखा और व्यवहार किया।
समाज से ही निकल कर नौकरशाही में आने वाला भारतीय अपने ही समाज को तिरस्कृत और पिछड़ा हुआ मानकर व्यवहार करता है।
वह उसे देखने देखना तक भी नहीं चाहता वह उसे घृणा करता है।
ऐसी तमाम घटनाएं सुनने में आती हैं कि गरीब मां-बाप का लड़का जब आईएएस बन गया।
बड़े पद पर चला गया तो वह अपने मां बाप को अकेला छोड़ गया।
वृद्ध आश्रमों में अगर हम देखें तो आज भी बड़े घरों के बुजुर्ग हैं इनमें नौकरशाही से जुड़े लोगों की संख्या अधिक है।
भारतीय नौकरशाह भारत में काम तो करते हैं इसका तरीका अभारतीय है।
भारत विरोधी है।
भारत के समाज को घृणा की नजर से देखने वाला है।
इस प्रकार यह तक अपना अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए उपयोगी सिद्ध करने के लिए भारतीय समाज को कभी भी आगे नहीं आने देगा और भारत का नागरिक अर्थात समाज कभी भी आजादी के मतलब को नहीं समझ पाएगा।
और आजाद जिंदगी को वह कभी नहीं जी सकता आजादी के बाद जिस कर्तव्य बोध का अनुभव नौकरशाही को होना चाहिए था वह नौकरशाही को नहीं है।
*शेष अगले अंक में!
लेखन – अधिवक्ता अरविंद पांडेय
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