आर्थिक मंदी की परिभाषा
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जब किसी देश की अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति में कमी होने के कारण लोगों की क्रय शक्ति घट जाने की वजह से वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग में लगातार गिरावट होने लगती है तो इसे ही मंदी कहा जाता है ।मंदी की स्थिति में मांग के गिरने के कारण आर्थिक क्रियाओं में कमी देखी जाती है, अर्थात उत्पादन गतिविधियां में कमी देखी जाती है ।जो अंततः रोजगार में कमी और बेरोजगारी में वृद्धि का परिचायक होता है; जिससे पूरी अर्थव्यवस्था में निराशा का माहौल छा जाता है और यह स्थिति अर्थव्यवस्था के लिए भयावह होती है। इसे ही मंदी कहा जाता है।
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होता क्या है आर्थिक मंदी में, अर्थात आर्थिक मंदी का लक्षण
👉मंदी आने के से किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास दर लगातार गिरते जाती है और आर्थिक संकेतक जैसे जीडीपी, जीएनपी ,प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति उपभोग दर जैसे आंकड़ों में लगातार गिरावट होते रहती है।
👉 मंदी आने पर जब लोगों के पास क्रय शक्ति नहीं रहती है तो उपभोग में लगातार गिरावट आने लगती है। पैसे के अभाव के कारण अति आवश्यक वस्तु छोड़कर अन्य वस्तुओं के ऊपर खर्च नहीं होता।
👉 मंदी की अवस्था में औद्योगिक उत्पादन ओं में गिरावट होती है जब वस्तु बाजार में बिकेगी नहीं तो उत्पादन से क्या लाभ इसी से उत्पादन कार्य पूरी तरह से ठप हो जाता है।
👉 मंदी आने पर बेरोजगारी बढ़ने लगती है। कंपनियां तथा उत्पादन की अन्य इकाइयां अपने कर्मचारियों को छांटने लगती हैं जिस कारण से समाज और देश में बेरोजगारी बढ़ने लगती है।
👉मंदी आने के फलस्वरुप जब बेरोजगारी बढ़ेगी तब लोगों के बचत और निवेश में कमी आने लगती है तथा बैंक में मुद्रा की मात्रा में कमी होने से बैंकों की गतिविधियों में एक ठहराव आने लगता है।
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ज्ञातव्य रहे कि 1930 की मंदी से यह मंदी बहुत बड़ा है क्योंकि इसमें पूरे विश्व में उत्पादन कार्य ठप पड़ने के कारण अर्थव्यवस्था में गिरावट होने लगी। गिरावट के कारण लोगों की आय में कमी आने लगी, आय में कमी के कारण बचत और निवेश में कमी आने लगी, लोगों के उपभोग में कमी आने लगी जिस कारण से मांग पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। और हम जानते हैं कि जब तक बाजार या अर्थव्यवस्था में मांग नहीं बढ़ेगी तब तक उस अर्थव्यवस्था का भला नहीं हो सकता।
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वर्तमान में पूरे भारत में लॉक डाउन की स्थिति है जिस कारण से व्यापार ,उद्योग इत्यादि आर्थिक गतिविधियां बंद चल रही है ।इस कारण से तमाम मात्रा में बेरोजगारी भी फैल रही है । कुछ शर्तों को छोड़ दें तो अधिकांश लोगों की आमदनी में कमी होने के कारण उनकी क्रय शक्ति भी घट रही है, जिसके कारण हम धीरे-धीरे मंदी की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में आम जनमानस का नजर सरकार के ऊपर होना लाजमी है। लेकिन मंदी को दूर करने के लिए सरकार की क्या भूमिका हो सकती है इस विषय पर थोड़ा चर्चा करते हैं।
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आर्थिक मंदी में सरकार की भूमिका
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प्रथम विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था में एक अजीब प्रकार का ठहराव आ चुका था तथा उसके परिणाम स्वरूप 1930 में आई मंदी ने पूरे विश्व को झकझोर दिया था। 1930 के पहले अर्थशास्त्रियों का एक समूह जिसे क्लासिकल अर्थशास्त्री कहा जाता है; उसमें सबसे प्रमुख अर्थशास्त्र के जनक “एडम स्मिथ “यह मानते थे कि अर्थव्यवस्था के संपूर्ण विकास के लिए सरकार का बाजार में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
जिसे उन्होंने अहस्तक्षेप का सिद्धांत( Lesser Faire)कहा । साथ ही साथ एडम स्मिथ ने अदृश्य हाथ(invisible hand) की संकल्पना को भी पारित किया ,अर्थात एडम स्मिथ यह मानते थे कि सरकार, को बाजार का या अर्थव्यवस्था का विकास बाजार की शक्तियों(market forces) मांग एवं पूर्ति पर छोड़ देना चाहिए। मांग और पूर्ति को ही एडम स्मिथ ने “अदृश्य हाथ” की संज्ञा दी है ।
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आर्थिक मंदी का इतिहास
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किंतु 1929 की मंदी जिसे”तीसा की मंदी भी कहा जाता है; के बाद पूरे विश्व में यह संकल्पना धराशाई हो गई कि “अहस्तक्षेप के सिद्धांत” से ही केवल आर्थिक विकास हो सकता है ,क्योंकि 1930 में जब पूरे विश्व में महामंदी की स्थिति आई तो मांग एवं पूर्ति (अदृश्य हाथ) एवं अहस्तक्षेप का सिद्धांत पूरी तरह से असफल साबित हो गया।
1929 की मंदी अर्थात तीसा की मंदी के बाद लोगों के मन में क्लासिकल अर्थशास्त्रियों के सिद्धांत को खंडन करने के तमाम कारण मिल गए। तब कुछ नए अर्थशास्त्रियों का दौर शुरू हुआ।अर्थशास्त्रियों को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि इस मंदी का निपटारा केवल मौद्रिक नीति के माध्यम से नहीं की जा सकती। अतः नए अर्थशास्त्रियों जिसमें जे.एम. कींन्स (John maynard keynes) ने मंदी से निपटने के लिए राजकोषीय नीति ( fiscal policy) के माध्यम से सरकारी हस्तक्षेप की बात की।
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जिसमें उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा हीं अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति को बढ़ाकर मांग में वृद्धि करके मंदी से छुटकारा पाया जा सकता है। किसी भी देश में मंदी से निपटने का सबसे कारगर उपाय मौद्रिक नीति (monetary policy)के साथ-साथ राजकोषीय नीति(fiscal policy) का प्रयोग भी होना चाहिए । यह प्रयोग उस समय (1930)के साथ-साथ वर्तमान की मंदी से भी निपटने में कारगर साबित होगा। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मंदी से निपटने के लिए मार्केट में मांग का बढ़ना जरूरी है। इसके लिए लोगों के पास क्रय शक्ति को बढ़ाना ही पड़ेगा।
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